उत्तराखंड की लगूली
· Pauri, India ·
#हिंदी_कविता #गढवालिम_कविता
पितरों की ये विरासत प्यारी देवभूमि
बडी शान से मेहनत करके बनवाया दादा ने
खुशी खुशी इस प्रेम महल में पाला था पापा ने
कहां गए तुम प्यारे बच्चों रोज यही मैं कहता हूं
याद तुम्हारा बचपन करके शाम सबेरे रोता हूं।
आता जब कोई चिट्ठी देने दिल मेरा भर आता है
खलियाने में बातें कर जो नाम पिता का लेता है ,
करूं कैसे सत्कार मैं उनका जगह न कोई बिठाने की ,
आदत डाली है दादा ने सबको चाय पिलाने की ।
तुलसी के खलियाने के अब कांटे मुझे सताते हैं
मेरे भीतर सांप और बिच्छू हर पल मुझे डराते हैं
भर दो मेरे जर्जर हिस्से गीत यही मैं गाता हूं
याद तुम्हारा बचपन करके शाम सबेरे रोता हूं ।
आओगे तुम कभी लौट कर आस लगाए रहता हूं
इन कांटों के बीच बैठकर दर्द सदा मैं सहता हूं ।
माना दुनियां बदल गई पर रीति रिवाज वही है,
नया नहीं है अब भी कोई सब त्योहार वही है ।
रहूं न शायद यहां मैं तब तक जब तक तुम घर आओगे
एक आश पर टिकी मेरी छत कभी तो तुम घर आओगे ।
गांव छोड़ कर चले गए जो जीवन शहर बसाने को
अपनों से बेगाने होकर झूठी शान दिखाने को
जीवन भर कमाया तुमने शहर में महल बनाने को
वहां बनाया यहां गंवाया हुआ है क्या ये जमाने को ।
फैली थी जब महामारी तो क्यों तुम वापस आए थे
मुझ गरीब झोपड़ी के लिए तुम क्यों महल ठुकराए थे ।
भरते भरते पानी भी बर्तन से ऊपर आता है
तेरे पूर्वज सबसे ऊपर तू क्यों नीचे जाता है ।
खुद तुम एक शहर बच्चों को दूजे शहर बसाओगे
कितनी पीढ़ी जाय गुजर पर कभी न संग रह पाओगे ।
माना समय बदल गया अब नौकरशाही आई है
बस जा चाहे किसी शहर पहचान मुझी से पाई है ।
पितरों की ये विरासत प्यारी देवभूमि यही है
स्थाई बनवा लो कितने मूलनिवास यही है ।।


समाजसेवी
गणेश मोहन नौटियाल
उत्तरकाशी
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पितरों की ये विरासत प्यारी देवभूमि
बडी शान से मेहनत करके बनवाया दादा ने
खुशी खुशी इस प्रेम महल में पाला था पापा ने
कहां गए तुम प्यारे बच्चों रोज यही मैं कहता हूं
याद तुम्हारा बचपन करके शाम सबेरे रोता हूं।
आता जब कोई चिट्ठी देने दिल मेरा भर आता है
खलियाने में बातें कर जो नाम पिता का लेता है ,
करूं कैसे सत्कार मैं उनका जगह न कोई बिठाने की ,
आदत डाली है दादा ने सबको चाय पिलाने की ।
तुलसी के खलियाने के अब कांटे मुझे सताते हैं
मेरे भीतर सांप और बिच्छू हर पल मुझे डराते हैं
भर दो मेरे जर्जर हिस्से गीत यही मैं गाता हूं
याद तुम्हारा बचपन करके शाम सबेरे रोता हूं ।
आओगे तुम कभी लौट कर आस लगाए रहता हूं
इन कांटों के बीच बैठकर दर्द सदा मैं सहता हूं ।
माना दुनियां बदल गई पर रीति रिवाज वही है,
नया नहीं है अब भी कोई सब त्योहार वही है ।
रहूं न शायद यहां मैं तब तक जब तक तुम घर आओगे
एक आश पर टिकी मेरी छत कभी तो तुम घर आओगे ।
गांव छोड़ कर चले गए जो जीवन शहर बसाने को
अपनों से बेगाने होकर झूठी शान दिखाने को
जीवन भर कमाया तुमने शहर में महल बनाने को
वहां बनाया यहां गंवाया हुआ है क्या ये जमाने को ।
फैली थी जब महामारी तो क्यों तुम वापस आए थे
मुझ गरीब झोपड़ी के लिए तुम क्यों महल ठुकराए थे ।
भरते भरते पानी भी बर्तन से ऊपर आता है
तेरे पूर्वज सबसे ऊपर तू क्यों नीचे जाता है ।
खुद तुम एक शहर बच्चों को दूजे शहर बसाओगे
कितनी पीढ़ी जाय गुजर पर कभी न संग रह पाओगे ।
माना समय बदल गया अब नौकरशाही आई है
बस जा चाहे किसी शहर पहचान मुझी से पाई है ।
पितरों की ये विरासत प्यारी देवभूमि यही है
स्थाई बनवा लो कितने मूलनिवास यही है ।।


समाजसेवी
गणेश मोहन नौटियाल
उत्तरकाशी
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— feeling grateful at उत्तराखंड की लगूली.
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