मेरि ठुलिईजा -एक नाम- कौमारी धाम
"""""""""""""""""ठुलिजैकि उमर आब् चार बिसी नौ हैगै। मेरि नान्छनाकि कतुकै बात मैं कें बताई मेरि ठुलिजाल। जो मैं कें लै याद जास न्हांती। जनन् में म्यर पढण-लिखण, इजा कें तंग करण,उछल-कूद,नान्छनाकि नरकैं, नानि उमर में ठुल्ली बात कै दिण और लै कतुकै चीज। कभै-कभै गौं जाणाक् बाद ठुलिज दगड़ी भेटघाट हैं। कतू बात याद ऐ जानी। एक बात यत्ती बतूँण चां, म्यार पढनाक् दौरान ठुलि ईजा कहती थी पढ च्यलौ पढ,पढ लिख लेगा तो भली नौकरी पाएगा,भली नौकरी होगी तो भली चेली बिवा लायेगा किसी की। नहीं तो इस "पहाड़ में न जनमौ च्यल-भाबर में न जनमौ ब्यल" इसी कहावत को कई बार दोहराने वाली ठैरी मेरी ठुलि ईजा,नानछनाकि बात होने पर मुझे समझ नहीं आता था कि ठुलि ईजा क्या कह रही है या क्या कहना चाहती है? मैंने एक दिन पूछ ही लिया। तब ठुलि ईजा ने कहा च्यलौ पहाड़ के लड़के को कमाने के लिए भाबर जाना पड़ता है,संघर्ष करना पड़ता है,कई कष्ट उठाने पडते हैं और भाबर में काट् {भैंसा} को गाड़ी {भैंसा गाड़ी} में या खेत में जोत कर खूब काम कराया जाता है। मैं तब भी पूरी बात को नहीं समझता था,मुझे लगता था पैंसा कमाने के लिए भाबर जाना गर्व की बात है। पर जब खुद इन शहरों में भटकते हुए यहाँ के ब्यल और पहाड़ के च्यालों को देखा तो सहसा ही ठुलि ईजा की कही कहावत पूरी समझ में आ गई। अब किसी के समझाने की जरुरत ना थी बस महसूस कर जीना था। ये प्रक्रिया चल ही रही है, निरंतरता लिए हुए और नीति निर्माता जन्ता के आका अपनी कुर्सी की गर्माहट लेने में व्यस्त हैं। वोट बैंक बना रहे कुर्सियां बची रहें क्योकि हमें फुर्सत नहीं है रोजी रोटी का बंदोबस्त करने से.....मगर जिस दिन पानी सर से ऊपर जाएगा एक नया इतिहास लिखा जाएगा और हां ओ दिन एक दिन जरूर आयेगा।
ठुलिज कैं पैलागपैलाग,
जय पहाड़ - तेरि बलै ल्हीयूंन।
राजेंद्र ढैला
एक नाम- कौमारी धाम
उत्तराखंड की लगूली
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