लगता है...दमयन्ती


लगता है...

लगता है,

 तुम आए थे मेरे  सपनों के आँगन में

तुम और मैं बतियाते रहे

कहते रहे

 सुख दुख

सुना है बांटने से बंट जाते

मैं एक बच्चे की तरह

लिपट जाना चाहती थी

जो गले लगकर

उतरे नहीं 

 तुमसे मिलने का

वो क्षण अंतिम होता

तो उस क्षण

सलीके से ओढनी ओढ

आखरी आलिंगन

ही कर लेती

ऐसा एक स्वपन

द्वार पर जला दीप

जल रहे सपनों के साथ था

नींद नहीं थी फिर आंखों मैं

तुमने अपना दुख नहीं बांचा

जबकि तुम्हारा दुख

मेरे दुख जैसा ही था

या उससे भी अधिक था

मुझे बहुत प्रेम आया तुम पर

 मैंने करवट ले ली

आंखे खुली ,नीर भरी

ठोकरें और अपमान सहे मैंने

मेरा सब कुछ

मेरे शब्द , मेरे गीतों में रचा बसा

कोई न खाये तरस मुझ पर

बस हमेशा 

आत्मदाह करती हूं

खुद की अरथी पर रोती हूं

जैसे भोर होती है

हंस कर उठ जाती हूं

अपने वर्तमान की फिक्र किये बिन मर जाना

आत्मदाह है

जो आत्मदाह करता है

उसको मुक्ति नहीं मिलती

तुमने कहा था

आंचल भर कर गुलाब झडे थे

कल रात

शायद तुम आये थे

सपनों के आंगन में मेरे।


दमयन्ती

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