गौरा

 


#गौरा

हमारी ग्राम पंचायत का एक गांव है जमरसो, जहां हर वर्ष गौरा (आठु) पर्व बड़े धूम धाम से मनाया जाता है, यह पर्व 4 से 8 दिन का होता है, किसी साल 4 दिन तक तो किसी साल 8 दिन तक मनाया जाता है, पुरुषों की दो टीम बनती हैं और ढोलक की थाप पर महाभारत की कथा का नेपाली भाषा में वाचन किया जाता है, बचपन में बड़ा इंतजार रहता था गौरा का, तब क्या गाया जा रहा है वो तो कुछ समझ नहीं आता था पर अलग अलग गांवों से आये बच्चों के साथ खेलने और कभी कभार लड़ने का अलग ही आनंद था, हम बच्चे चाहते थे कि गौरा 8 दिन तक मनायी जाए ताकि हमें ज्यादा दिनों तक वहां जाने का मौका मिले, छोटे से गांव में शाम में बहुत से मेहमान (दूर के गांवों से आये लोग) हो जाते थे, गांव में अधिकतर गरीबी थी फिर भी गांव के लोग सभी को आदर के साथ भोजन कराते थे, खाने में स्याली (चावल की पूड़ी) का अलग ही आकर्षक था।
इस मेले में एक दो दुकानें भी होती थी, जलेबी वाली दुकान को देखकर मुंह में पानी आता रहता था, कागज के टुकड़े में जलेबी का फेरा किसी के हाथ में दिख जाए तो लगता काश ये मेरा हाथ होता।
उन दिनों पैसे कम ही होते फिर रोज खर्च करने को मिलना तो नामुमकिन ही था, दीदी लोगों के पास दक्षिणा के बचाये हुए पैसे होते थे, (गांव में श्राद्ध या किसी शुभ कार्य पर लोग कन्याओं को खिलाते थे और खाने के पास कुछ पैसे देते थे जिसे दक्षिणा कहते थे) वो उस पैसे से हमारे लिए जलेबी, पकौड़ी आदि ले देती थी।
शाम को गौरा से आते तो कभी कभार दीदी ईजा लोगो के लिए भी जलेबी लाती थी, ईजा के हिस्से से भी हम ले ही लेते थे, लगता था जैसे ईजा अपने लिए सारी इच्छाओं का त्याग कर चुकी हैं, कभी नहीं कहती थी कि मुझे भी खाने दो, हां, आमा कहती थी कभी, "तुमरो पेट ना भरिनो कभे, आपनी मतारि कैले चाखन दी नानो (तुम्हारा मन नहीं भरता कभी, कभी अपनी मम्मी को भी चखने दिया करो)"। उन दिनों काकनी (भुट्टे) का समय होता था, शाम को दीदी, ईजा काकनी भूट के देते थे, आंगन में बैठ काकनी खाने का अलग ही आंनद था।
©राजू पाण्डेय
बगोटी - चम्पावत
फ़ोटो आभार Satish Chandra Pandey
फ़ोटो बर्ष - 2021

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