ए गौरी !.....बहन हेमलता .... आस.. लेख

 ए गौरी !.बहन हेमलता .... आस.. लेख

रविवार का दिन, स्कूल की छुट्टी और मेरी ड्यूटी मरड़ा /छानी ( दूर जंगल में पशुओं का स्थान) में हमारे एक दादा जी भैंस ( 3)और गाय के साथ में एक छोटी सी बछिया, छानी मैं रहते थे ।
सन्यारा का बुग्याल में या उसके आस पास हर कुटुंब से लगभग एक एक छानी सभी की होती थी। पर्वतवासी जनों के दूरदर्शी नजरिए से इस छानी की परंपरा बनाई गई होगी,गर्मी और बरसात याने सितंबर अंत तक पशु छानी में ही रहते थे ताकि घास, चारे की व्यवस्था के प्रबंधन सुविधा जनक तरीके से किया जाए। परिवार के बुजुर्ग महिला या पुरुष यह जिम्मेदारी निभाते थे। क्योंकि वह विशेषज्ञ हैं जंगलों में जंगली जानवर व प्रकृति संतुलन, प्रबन्धन के।
मैं रांसी से आटा गेहूं, कोदे और मर्छु ( चौलाई) गुड़, चायपत्ती, आदि की पोटली बना कर पिट्ठू में रख कर साथ में एक और चाचा जी के साथ "शामल " राशन लगभग 5किलो सामान लेकर हम झेकड़ी से झीन्न होते हुए हम संयारा बुग्याल पहुंचे , चाचा जी अपनी छानी की तरफ चले गए और मैं अपनी छानी में सबसे पहले सेम की फली से लदे " राजमा" , तंबाकू , मारछू आदि के खेत और गोबर की ढेरियां खेत में जगह जगह पर। जैसे ही मरड़े/ छानी के पास पहुंची तो दादा जी पशुओं को चराने दूरी पर गए हुए थे , मैंने आवाज दी ऐ दादा..... दादा जी ने सुना और जवाब दिया ए ग्यु र .... बोई।
उम्र लाभग 70 वर्ष की, झुर्रीदार मुस्कुराता हुआ चेहरा , दादा जी ने मोटा ऊन का कुर्ता, बाहर दोखा, और कमर पर ऊन की बटी रस्सी की गाती बांधी हुई थी मोटा ऊन का हाफ पेंट, पीठ में हरे मुलायम घास की दो पूली नंगे पांव वह छानी की तरफ आ रहे थे जैसे देव दूत..! मुझे दादा जी से बहुत स्नेह था क्योंकि वह बहुत प्यार से बात करते थे । नाम था भगीरथ सिंह , सच के भगीरथ.....! देवभूमि पहाड़ के घने जंगलों में इतने पशुओं को लेकर रहना, नियम पालन करना बहुत तपस्या का कार्य होता है परंतु दादा जी विषेषज्ञ थे।
मैंने सामान नीचे रखा और दादा जी का इंतजार करते हुए जब सामने घने हरे पेड़ों , खुले बुग्याल को देखती तो लगता किसी नईं दुनियां में पंहूच गई हूं।
दादा जी ने घास छानी के आगे रखा, मैंने प्रणाम किया दादा जी ने और मेरे सर पर प्यार से हाथ रखा पूछा " घर , गौ पुण्ड सब ठीक ह्वाला बोई ".... मैंने हां बोला फिर दादा जी छानी में अंदर गए । एक छानी में दो हिस्से एक तरफ पशु रहते एक तरफ दादा जी और बगल में बछिया , एक बड़ा सा चूल्हा उसमें बांझ बुरांश की आधी जली लकड़ियां, बगल में मठ्ठा बिलोने का बर्तन साफ़ धो कर रखा हुआ।
दादा जी प्यार से बोला " हिमा क्य खांदी तू" ... ऐसा बोलकर लकड़ी के बड़े बक्से में जिसमें दही, दूध, मक्खन था खोल कर देखने लगे ।. मैंने तुरंत बोला" मि दूध मांगो आटू " (हलवा दूध में पका हुआ) ( ये सच था कि हम छानी में जाने को तरसते थे क्योंकि घी, मक्खन,दूध," चुवाईं छा" मठ्ठा जी भरके खाने को मिलता, नए आलू जिसे हम पहाड़ी आलू कहते हैं, साथ में राजमा के दाने की सब्जी कोई मसाला नही पर क्या कहें स्वादिष्ट ! )दादा जी ने बोला ए बोई दूध कम छा ..... जाग हैं ...
और दादा जी बाहर आ गए( वो सुबह ही दो रोटी खा लेते थे फिर शाम को ही बनाते थे, ) दूर पशु घास चरते हुए नजदीक दिखाई दे रहे थे , दादा जी ने आवाज लगाई " ए ... गौरी..... उन ओ .... ओ ... त । देखती हूं एक गाय सीधे छानी की तरफ आ रही है । जब दादा जी के नजदीक आई तो दादा जी ने उसे बोला " देख हिमा आई छा दूध चैंद क्य होलू ..? (हेमा आई है दूध चाहिए क्या होगा तब) दादा जी ऐसे बात कर रहे थे जैसे कोई मनुष्य सुन रहा हो , दूध सुबह निकाला होगा फिर 2बजे दोपहर का समय रहा होगा दूध निकालने का समय नही था। गाय खड़ी हो गई दादा अंदर से पीतल का लोटा लाए और गाय के थनों को धोया और दूध निकालने लगे ...! उसके बाद गाय वापस अपने झुंड में चली गई।मेरे लिए यह अद्भुत दृश्य था ! जो आज तक मेरे मन पर जस का तस अंकित है। फिर दादा जी ने दूध में हलवा बनाया, ताजा मक्खन दिया , मैंने बहुत प्यार से खाया थोड़ी देर रुकने के बाद में दादा जी को प्रणाम करके वापस घर की ओर लौटने लगी । दादा जी दूर पशुओं के पास चले गए थे। सची के भगीरथ थे दादा जी।
कठोर परिश्रम उम्र को मात दे रही थी। सादर नमन दादा जी।

बहन हेमलता
। आस।

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