हम तो काफ़ल खाते हैं***Grhwali Poetry wrote by Bhupendra Dongriyal

 


हम तो काफ़ल खाते हैं

सच बोलणु छूँ म्यारा भैजी,
हम झूठ नहीं फरमाते हैं।
तुम खाओ भाई लीची-पीची,
हम तो काफ़ल खाते हैं।

ये बाग-बगीचे क्या होते हैं,
हम तो जंगल में जाते हैं।
अपणी टुफ़री भोरिक भैजी,
हम काफ़ल घौर में लाते हैं।

लींची पर तो छिक्कल होता,
काफ़ल बिन छिक्कल का होता है।
जैल नि खाइ काफ़ल भैजी,
वह जीवन भर रोता है।

यो खट्टू-मीठू स्वाद दूई कु,
दूई मुँह में पाणी लाते हैं।
तुम खाओ भाई लीची-पीची,
हम तो काफ़ल खाते हैं।

जब काफ़ल पाको बोलती चखुली,
हम दौड़ी कि बौणु को जाते हैं।
लमै की फाँकी डाल्यूं की हम,
तब सपनों में खो जाते हैं।

माना कि तुमरा लीची बड़ा छीं,
पर ऊं पर लम्बा कीड़ा छीं।
अर हमरा काफ़ल इदगा रसीला,
जना मुख म पान का बीड़ा छीं।

काफ़ल खाने वालों को हम,
अपुणु उत्तराखण्ड बुलाते हैं।
तुम खाओ भाई लीची-पीची,
हम तो काफ़ल खाते हैं।

(गढ़वळि काव्य संग्रह-चिटमिळू आसमान)

लिख्वार- भूपेन्द्र डोंगरियाल
ग्राम-बल्यूली
डाकघर-मरचूला
जनपद-अल्मोड़ा

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