मोक्ष शिवा
अपने को ढूंढ़ ने लगा हूँ
बिखरा पड़ा समेट ने लगा हूँ
आवाज अनसुना कर भागता फिर रहा
अपनों से लड़ गैरों को अपना रहा हूँ
दो पल शेष एक पल तेरा एक पल मेरा
भर्मित होकर पल से खुद को भर्म रहा हूँ
ज्वाला लगी है ऐसी मन भीतर भीतर
सब कुछ स्वाह करने वो तक्ष लगी है
समेटा हुआ अब फिर बिखरने लगा
निराकार स्वरूप और वो निखरने लगा हैं
अपने से आज मैं ऐसे मिल रहा
जो ढूंढ रहा था आज उसमे मिल गया हूँ
बालकृष्ण डी. ध्यानी,
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अपने को ढूंढ़ ने लगा हूँ
बिखरा पड़ा समेट ने लगा हूँ
आवाज अनसुना कर भागता फिर रहा
अपनों से लड़ गैरों को अपना रहा हूँ
दो पल शेष एक पल तेरा एक पल मेरा
भर्मित होकर पल से खुद को भर्म रहा हूँ
ज्वाला लगी है ऐसी मन भीतर भीतर
सब कुछ स्वाह करने वो तक्ष लगी है
समेटा हुआ अब फिर बिखरने लगा
निराकार स्वरूप और वो निखरने लगा हैं
अपने से आज मैं ऐसे मिल रहा
जो ढूंढ रहा था आज उसमे मिल गया हूँ
बालकृष्ण डी. ध्यानी,
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— in Universe.
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