जब भी***Hindi poetry written by Damayanti Bhatt

 


जब भी

जब भी पग डग मग हों मेरे
थाम लेना मुझे अपने अधरों की बंसी सा
जब जब जग ने मुझको ठुकराया
मैंनै खुद को बढ कर पाया
उधार की करुणा
खरीदे रिश्ते
संवेदनहीन लोग
प्रेम देह की वर्जनाओं से मुक्त
एक गीत है
आत्मा के स्रोत की एक बूंद
जो आतप्त रूह को
शीतल करती
देह तो एक पडाव है
इस पर ठहरे लोग
नहीं पा सकते प्रेम
जब प्रेम स्पर्श करताहै
देह विलुप्त होती है
जब प्रेम हो जाता है
तब अतिरिक्त सब शून्य हो जाता
जब सब शून्य हो जाता
तब प्रेम उत्सव मनाता
कोई नहीं जान सका था
सच को
कैसे पिया था मीरा ने विष को
वो पुकार रही थी गिरधर को
मेरे घुंघरूं के स्वर
समाहित हों श्याम चरणों मैं
हम दो नहीं एक हो जायें
सदा के लिए
जग ने तेरे मंदिर बनाये
मैं तेरे संग घर बसाऊं
विरह की तो कथायें सुनी थी
जब तक मेरे भाव पंहुंचते तेरे दर तक
मेरी प्रार्थना का शव जलाया जा चुका था

दमयंती
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