"रात
की मुट्ठी में एक सुबह भी है"
दुख भरी वह नीर की बदरी भले है,
पर
बीच में उस मेघ के सुख उदय भी है
रात ने मुट्ठी में जकड़ा
है जो तम को,
रात की मुट्ठी
में पर, एक सुबह भी है।
विपरीत है माना अभी रफ़्तार बेला,
हैं निराशा
की घटाएँ चार
ही सूं,
सब्र कर इन ही घटाओं से निकलकर,
दीखती
मुझे आस की इक किरण भी है।
है अनिश्चित
धूल का गुब्बार
सन्मुख,
सामने तेरे
विषादों का है रेला,
पार उस गुब्बार के तू देख एकटक,
बीच में ही हर्ष की एक झलक भी है।
जानता हूँ खूब श्रम
तूने किया है,
कोशिशें तेरी हुई नाकाम
अब तक,
असफलताओं का धुंआ
हर ओर है पर,
सफलता की सामने
एक महक
भी है।
जो नहीं बाधाओं से बिल्कुल डरा है,
विश्व में पहचान उसको ही मिली है,
स्वर्ण तपकर ही सदा कुन्दन है बनता,
सीख
ले 'उनियाल' की यह सीख भी है।
✍️
नरेश चन्द्र उनियाल,
पौड़ी
गढ़वाल, उत्तराखण्ड।
सर्वथा
मौलिक, स्वरचित एवं अप्रकाशित रचना।
✍️
नरेश चन्द्र उनियाल।
1 टिप्पणियाँ
वाह्ह्हह्ह्ह्ह..... कृति को अमर कर दिया आपने....
जवाब देंहटाएंऋणी हूँ.... नमन 🙏