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"माँ तो बस माँ ही होती है"
गर्भकाल के नौ महीनों तक,
कष्ट जहाँ भर का सहती
है,
सन्तति के सुन्दर ख्वाबों
में,
सुबह शाम निशिदिन रहती है,
अपनी सन्तति के सुख खातिर,
अमन
चैन अपना खोती है,
माँ की बात कहें क्या
यारों,
माँ तो बस माँ ही
होती है।
निज सन्तति की खातिर माता,
कई सुनहरे
ख्वाब देखती,
सोया है सुख से क्या बच्चा,
रात-रात भर जाग देखती,
सूखे विस्तर
उसे लिटाकर,
खुद ही गीले में सोती है,
माँ की बात कहें क्या यारों,
माँ तो बस माँ ही
होती है।
ठोकर लगती अगर पुत्र को,
होता चाक है माँ का सीना,
बच्चों के खातिर ही उसका,
होता है मरना और जीना,
काँटे उनकी राह से चुनकर,
सदा पुष्प पथ में बोती है,
माँ की बात कहें क्या यारों
माँ तो बस माँ ही
होती है।
दुनिया के सब नाते भी
मिल,
माँ
के तुल्य नहीं
हैं होते,
ज्ञानी लोग तभी माता को,
धरती के समतुल्य हैं कहते,
अगर स्वर्ण
होते हैं रिश्ते,
तो माता
होती मोती है,
माँ की बात कहें क्या यारों,
माँ तो बस माँ
ही होती है।
✍️ नरेश चन्द्र उनियाल,
पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड।
सर्वथा मौलिक, स्वरचित एवं अप्रकाशित रचना।
1 टिप्पणियाँ
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