हिन्दी । गढ़वाली । कुमाउँनी । गजल । अन्य । कवि । कवयित्री । लेख ।
मुडरू
सुबेर
कल्यो रुटि खावा ,
हजि
दुफरा कु भात पकावा ।
रुसड़ा
कु साफ सफै करि जनि ,
तनि
चा कु भि फिर टैम ह्वे जावा ।
जबरि
भांडा उबै नि साकी जरा ,
ब्यखुनि
कु क्या भुज्जी बणावा ।
यु भारी कठिण सवाल ,
रोज-रोज
क्या खाणु पकावा ।
कुई
बोदु आज दाल किलै ,
कुई
बोदु जरा झोळि भि बणावा ।
मखुम खाणु सौंरि कि धन तब,
तौंका
नखरा पचावा ।
कैथै
मोटी रुठि कैथै फुलका ,
कैथै
रसदार कैथै लटपटी खलावा ।
खाणु
बणाणु सगत ""मुँडारु" भै ,
कमी
रै हि जाँदि चा कन कन बणावा ।
पर
जब सब्युँ कु मनपसंद बणदु ,
मन
खुश होंदु सुणि कि और लावा ।
©®
विनीता मैठाणी
पौड़ी
ऋषिकेश
उत्तराखंड
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