मुडरू

उत्तराखंड की लगूली

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मुडरू

 

सुबेर कल्यो रुटि खावा ,

हजि दुफरा कु भात पकावा ।

 

रुसड़ा कु साफ सफै करि जनि ,

तनि चा कु भि फिर टैम ह्वे जावा ।

जबरि भांडा उबै नि साकी जरा ,

ब्यखुनि कु क्या भुज्जी बणावा 

 

यु  भारी कठिण सवाल  ,

रोज-रोज क्या खाणु पकावा ।

 

कुई बोदु आज दाल किलै ,

कुई बोदु जरा झोळि भि बणावा ।

मखुम  खाणु सौंरि कि धन तब,

तौंका नखरा पचावा 

 

कैथै मोटी रुठि कैथै फुलका ,

कैथै रसदार कैथै लटपटी खलावा ।

 

खाणु बणाणु सगत ""मुँडारु" भै ,

कमी रै हि जाँदि चा कन कन बणावा ।

पर जब सब्युँ कु मनपसंद बणदु ,

मन खुश होंदु सुणि कि और लावा 

 

©® विनीता मैठाणी

पौड़ी ऋषिकेश

उत्तराखंड

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