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केंचुए
नाग हो गए
बिल्ले
हुए अब बाघ, केंचुए नाग हो गए
किरपा
से राख कोयले भी आग हो गए।
कुएँ
खोदकर भी कुछ प्यासे ही खड़े रहे
कुछ
पी, धो-नहा कॅर बाग-बाग हो गए।
अ
से अमरूद, जिन्हें आ से आम ना पता
वे
महान ज्ञ से ज्ञानी, बड़े ही भाग हो गए।
वन्दन
में मगन रात-दिन वे वसन्त से खिले
निष्ठा
हो या लगन, सब पूष-माघ हो गए।
कौवे-
काँस्य पा गए, बगुलों ने रजत मढ़ा
स्वर्ण
पदक गिद्धों के भजन-राग हो गए।
पारी
की प्रतीक्षा में, तट पर मौन कुछ खड़े
कुछ
पवित्र हो, गंगा में बुलबुले झाग हो गए।
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डॉ कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
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