सीख तो मां ने दी थी
दो घर जोडने
दो पैसे जोडने
ये सीख तो मां ने दी थी
सिर का बोझ जैसे
उतार दिया
डोली में बिठा दिया
खूंटे से बांध दिया
अनजाने पथ हांक दिया
विदा कर दिया बेअकल
कसाई के हाथ
जाति तो पाषाण की भी होती
हर पत्थर नींव पर नहीं टिकते
न उसने समझा
न समझना चाहा
न उसे दर्द हुआ
न उसे फर्क पडा
बेसबर सी वो नाई
सात जनमों की परछाई
बस भर पेट निवाला
जिसकी रसोई मैं नहीं बनता
बस खूबियां गिनाना सिखाया
प्यार बताना
तारीफ करना
ससुराल और पति की
समाज मैं बढाई करना
सह जाना
अपने मां बाप का अपमान
दो घर की लाज बचाने
की ठेकेदार है वो जो
उसके घर मैं
न किसी की नजर मैं दर्द
न किसी की नजर मैं फर्क
पराये घर जाना
पराये घर से आई
तमाश बीन बन कर
खडी रहती
सात जनमों की परछाई
मां पर लगाती वो
तोहमत कि
देती कुमन्त्र
खुद की पंचायत
अंधा घरबार
बसेरा ढाई टाट
वो दुनियां के
चांद पर पहुंच जाने की बात करते
जिनको पता नहीं कि
हर घर मिट्टी के चूल्हे होते।
©® दमयंती
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