आखरी और ठंडी रोटी***Hindi poetry written by Damayanti Bhatt


आखरी और ठंडी रोटी


रसोई की आखरी और ठंडी रोटी

खाते समय उतना बुरा नहीं लगा

जितना बुरा सास को पहरे पर 

रात को खडा देखा

 ससुराल को शादी के दिन

अपना घर मान लिया

ननद और जिठानी का तुमको 

 ये कहना कि तूने कमाना इसने खाना 

ये बहुत बुरा लगा

जब तुम घर आते 

मैं भी तुम्हारा इंतजार करती थी

दिन भर तुम्हारी मां और पिता की घिच घिच

    और मजदूरों का जैसा व्यवहार

मेरा मन भी होता था

 पहनूं नयी साडी कंगन

 पर मेरे हिस्से मैं थी भौजाई की उतरन

मैं ससुराल में रहूं

ठीक ही था पर 

तुम तो कभी गये नहीं ससुराल

जिस घर को बनाने में

मैंने

पत्थर मिट्टी  ढोई

जिसकी कद्र नहीं करते

भाई-भौजाई

मेरे संस्कार रद्दी नहीं थे

हां कबाडियों के हाथ लग गये

मुझे ससुराल बुरा नहीं लगा

पर सुराल का परायापन

  बहुत बुरा लगा

अपने मां बाप की इज्जत  चाही

 जिसने कभी रिश्तों की राह नहीं दुहराई

मुझे बुरा नहीं लगा कभी

 जब मेरा हर पहला पल

 मेरा न हो कर

 नौकर जैसा था

दस घर जा कर आती वो

 खुद को खानदानी कहती जो

एक दिन भी नहीं निभा सकेंगी

मेरा किरदार

जो मुझपर छींटाकसी करतीं

हंसी उडाती

कहतीं बातें हजार

जीवन की भाग दौड मैं

तुम्हैं समय नहीं मिला

मैं  पडोस की औरतों की तरह कभी

 तुम्हारे साथ नहीं गयी

 तुम्हारे मां बाप के डर से

  समय बदला होगा

किताबों मैं

 आज भी घर गांव रिश्तेदार

ऐसे  ही हैं पहाडों मैं

घर के बेटे बैठै रहते पंचायतों मैं

 ये  बात बुरी लगती

दामाद पाले जायें

बेटे पाले जायें

अपने और पराये के

भेद कैसे मिटाये जायैं

 मां बाप कमायें

 ऐश से

कुछ बेटे खायें

कुछ दामाद खायैं

घर की लाज

बहू बेटियां निभायें

ये बात बहुत बुरी लगती 

दमयंती 

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