'भूल'




'भूल'

मनुज का अस्तित्व मात्र,

एक कतरा धूल का।

छा जाती है जो अनायास ही,

बुद्धि विवेक वेग आवेग पर,

आंखों बातों और अहसासों पर।

कर बैठता है भूल वो,

अपने अहम और वहम में,

समझ अपने को श्रेष्ठ जो,

चलता नित पतन की ओर,

कुदरत समझाती है उसे

गुजरते वक़्त के साथ।

और अंत समय रहते हमेशा

दोनों हाथ रिक्त।


©® अंजना कण्डवाल 'नैना' 

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