मैं व्यक्ति हूँ समाज नहीं



———————————— स्वरचित
मैं व्यक्ति हूँ
इसमें कहाँ कोई संदेह है ?
मगर
मैं संस्था हूँ
ये समाज मुझसे है
यह ग़लतफ़हमी कहीं से ठीक नहीं ……
इस संसार चक्र में
व्यक्ति आता है चला जाता है
समाज हमेशा रहता है ……
समाज की स्थापित
सभ्यताएँ
रीतियाँ
नीतियाँ
रिवाज
संस्कृति
मान्यताएँ
रहन सहन
बोली भाषा
लोक संवाद
सभ्यता का संक्रमण
देश काल परिस्थितियाँ
सामाजिक आर्थिक राजनैतिक ताना बाना
यह सब किसी भी व्यक्ति को समाज से विरासत में मिलते हैं ……
कभी भी कोई चीज स्थाई नहीं रही हैं
देश काल परिस्थितियों के अनुसार
नियमित निरंतर विकास के साथ
जब तब मानव सभ्यताएँ
परिवर्तित होती रही हैं
यही सृष्टि का चक्र है
हम सब जब तब
अपने - अपने काल खंड में
तमाम विषयों का
हिस्सा बनते चले जाते हैं ……..
दो पीढ़ियों की सोच जीने के तरीक़ों में ही
कितना अंतर देखने को मिलता है
इसलिए
जो कल था
वह अक्षरशः आज नहीं हो सकता है
और जो आज है
वह आने वाला कल नहीं हो सकता है …….
रहन सहन से लेकर खान पान
बोली भाषाओं से लेकर संस्कृतियाँ
पहनावे से लेकर तमाम भौतिक साधन
कल तो थे नहीं
मगर आज उन्हें
हम जी तो रहे हैं
क्या वह सब कल हुबहू रहेंगी
कोई इस बात की गारंटी नहीं दे सकता
यहाँ कुछ भी स्थाई नहीं है …….
संसार के इस मंच पर
बेमतलब की बहस को जन्म देकर
असहज होते चले जाते हैं
जो कि सर्वथा ग़लत है …….
यह संसार परिवर्तनशील है
हम जब तब
अपने - अपने काल खंड में इसमें शामिल हैं
यही हमारी नियति है ……..


सादर


इं० विष्णु दत्त बेंजवाल “अबोध “
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