उत्तराखंड की लगूली
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गांव की याद !!!
"ए भूलि कंहा है रे .....जल्दी आ" !!!
"वोडारी धार" (रांसी गांव का एक स्थान )पार बहुत भारी लकड़ी का बोझ लिए मैं धीरे धीरे । सभी जंगल से घर आ रही दगड़यों (साथीयों)के साथ वापस आ रही थी, लकड़ी का बोझ अधिक होने से पिछड़ गई थी
सुबह सवेरे जाड़ों मैं मंगसिर (दिसम्बर ) का महीना , जंगल जाना हमेशा का काम पर , जब तक बर्फ नही गिरती गाँव में तब तक लकड़ी लाना जरूरी होता है । घास या ऊल (सुखी घास) छुट्टी हो तो स्कूल जाने वाली लडकिया लकड़ी, घास लाने जंगल जाती थी। "घर वालों की चिन्ता ये की जाने कब बरफ गिरे और कई दिनों घर से निकलना जंगल जाना मुश्किल हो जाता था।" जितना अधिक संग्रह हो घास ,लकड़ी उतना निश्चिंतता मनुष्य और पशु के लिए।
मेरी उम्र 15 से 16 साल के लगभग थी । सुबह दो चौलाई की रोटियां चटनी (भांग के भून कर पिसे हुए नमक )मैं खाई कमर में रस्सी बांधी, (लकड़ी काटने का हथियार)थमालु हाथ में लिया और जल्दी जल्दी सब के साथ समूह में शामिल हो जाती थी। हर कोई एक एक कर समूह में "समारी धार " (गाँव से दूर एक ऊंचे स्थान पर ) मैं इकठ्ठे हो जाते थे! अपनी बातें करते हुए, हंसते हंसाते कब जंगल पहुंच जाते पता ही नही चलता था ?
कई लोग भट्ट ,भंगुल ,भुने हुए ले जाते थे साथ मैं , खाते खाते हुए जाते । कई बार खटाई बनाने की योजना बनती कंहा नींबू हैं ?नमक कौन लाएगा ?वगैरह वगैरह .....
एक पल्यूण ( दराती और थमाले को धार लगाने वाला पत्थर )वाली जगह पर बैठकर अपनी अपनी बातें चर्चाएं होती
स्त्री के दर्द तब भी इतने ही कष्टकारी थे । "मनीआर्डर इकोनोमी " अभाव ,गरीबी ,आपदाएं सभी तरह के हालात !! श्रम और उससे जुड़े किस्से , सास ससुर द्वारा दिये जाने वाले कष्ट, अक्सर कोई चाची, कोई भाभी अपने साथ हो रहे अन्याय को बताते जैसे - कल फलां ब्वारी को दिनभर जंगल में घास काटना पड़ा, दिन भर भूखी तीसी (प्यासी ) काम पर लगी रही बेचारी ! छोटे बच्चे को भी ऐसे ही छोड़कर जंगल ,खेत में लगे रही !
भोजन में कोदे और झंगोरे या चौलाई के अलावा (भात दाल, गेहूं की रोटी )बहुत कम मिलता था कई घरों मैं बहु, बेटियों को। ये सब समस्याएं साथ ही पति को बाहर गए दो साल हो गए ??
घर वालों मायके नही भेजा कई महीनों से .....!
सारी खबरें गांव की उस "पल्यूण्ड" के पास होती थी। "चला छोरो अब देर ह्वेगी "!!! कहती हुई चाची सबको याद दिलाती ....
थोड़ी देर बैठने के बाद वंहा पर से सब अलग अलग दिशाओं में घास, न्यार, लकड़ी की खोज में निकल पड़ते ।
जैसे जैसे घास लकड़ी होती रही जिसके पास वह आगे बढ़ते गए , एक दूसरे को आवाज देते हुए ...".मि चलयूं रे ,सरासर ....आवा घाम मस्त ऐगी, बौखौंड. ना खाया ....रे "!( मैं जा रही हूं रे तुम जल्दी जल्दी आओ ,सूरज बहुत आ गया रे ....,घर वालों की गाली मत खाना रे ...!) घड़ी का काम सूरज की चलने से पता लगता था ,रात का समय रात को तारे और चंद्रमा को देख कर पता लगाया जाता था।
मैं लकड़ी ढूंढते ढूंढ़ते दूर निकल गयी थी ! पर लकड़ी अच्छी मिल गयी थी, सो खूब बड़ा बोझ बन गया था, अब मेरी चाल धीमी थी। पहाड़ी से उतर कर जब मैं सड़क (कच्ची ) पर बिसूण (बोझ रखने का स्थान )पर पहुंची तो देखा सब जा चुके थे
मुझे लगभग एक कि मी की दूरी तय करनी थी अपनी साथियों तक पहुंचने के लिए। पसीने से तर बतर, डर, घबराहट सी होने लगी "वोडारी धार " मैं पहुंचने पर रांसी गांव दिखाई देता है बस किसी तरह धार मैं पहुंच जाँऊ ये सोच कर चल रही थी ...! कि एक आदमी दिखाई दिया ....? उसकी चाल से महसूस हो रहा था कि वह नशा किये हुए था ....! मैं चलती रही.....तभी आवाज आई "किसकी लड़की हो तुम "....?
मैंने उसको देखा तो उस आदमी की आँखे लाल थी .....वह घूर कर देख रहा था , थोड़ा लड़खड़ा रहा था !
मुझे अच्छा नही लग रहा था उससे बात करना ...मैं ये सोच रही थी कि कैसे मैं भागूँ यंहा से । "सारे देवी देवता मना रही थी " ....हे क्षेत्रपाल देवता मदद कर .....!
मुझे एक आईडिया आया मैंने तेज गति से कदम बढ़ाते हुए बोझ को अगली बिसुण (बोझ रखने का स्थान ) पर रखा और दो कदम पीछे जिधर वह आदमी खड़ा था उस तरफ को बढ़ी , ऊपर पहाड़ की तरफ देख कर जोर से चिल्लाई " ए लो भूलि कख छन तुम मि बिसूण मां ए गयुं रे सरा सर आवा रे ...." !!!
( ए बहन तुम कंहा हो ,मैं यंहा आ गयी हूँ, तुम जल्दी जल्दी आओ )
इतना बोलना भर था , वह आदमी ऊपर देखता हुआ धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा गोण्डार की तरफ ....!
मैंने तुरन्त बोझ उठाया तेज गति से बढ़ते हुए "वोडारी धार " के पास पहुंच गई जंहा से रांसी दिखाई देता है। बस चलती रही ......एक पनचक्की पड़ती है रास्ते में पुल के पास ... वंहा आकर सांस ली ... ईश्वर का धन्यवाद किया
में जानती थी हमारी कोई साथी नही थी पीछे ? मैं ही छूट गयी थी सबसे पीछे
मेर दीदी
हेमलता बहन
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