उत्तराखंड की लगूली
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निशाचर
संतों की इस पावन धरा पर
घूम रहे अब भी हैं निशाचर
सनातनी परंपरा पर करके चोट
संस्कृति को हमारी रहे हैं नोच.....
शब्दों में हर पल ज़हर घोल रहे
विक्षिप्त गजराज से डोल रहे
उर में बैठा है इनके कैसा खोट
संस्कृति को हमारी रहे हैं नोच......
पग पग निर्दोषों का खून बहाते
इंसानियत को अधर्म पाठ पढ़ाते
रख राजनैतिक वहशी कुटिलसोच
संस्कृति को हमारी रहे हैं नोच......
अलगाव का ये ख्वाब हैं पाले
कर वसुधा को नफरत के हवाले
सर्वधर्म संभाव को दुष्टता से दबोच
संस्कृति को हमारी रहे हैं नोच......
भीड़ को बना आपना हथियार
युवा दिलों में भर उन्मादी विचार
मची निज भावनाओं की लूट खसोट
संस्कृति को हमारी रहे हैं नोच......
अहित तृष्णा के वशीभूत भाव कठोर
धर्मांतरण का विष घोलते चहुं ओर
सर्पदंश दे हृदय घायल करते रोज़
संस्कृति को हमारी रहे हैं नोच......
कुंठित मन संकुचित विचारधारा
टुकड़े टुकड़े गैंग इनको प्यारा
खूनी नखों से राष्ट्र को रहे खरोंच
संस्कृति को हमारी रहे हैं नोच......
देश के विकास को करते बाधित
मन भेद कराने में हैं शातिर
झुके हिंदुस्तान रहती यही खोज
संस्कृति को हमारी रहे हैं नोच...
स्वरचित सादर
सर्वाधिकार
© द्वारिका चमोली (डीपी)
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