उत्तराखंड की लगूली
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याद
बढ़ती उम्र के साथ कली से फूल हो गई हो तुम
झरते पातों और ढलती शाम के साथ
रंग ऐसा निखरा कि सख्सियत
तुम्हारी हो गई और भी सुर्ख
वक्त के साथ जवां इश्क सी लगती हो तुम
यादों में किसी के इंद्र की अप्सरा सी दिखती हो तुम
शब्दों में बेशक आ गई हो थोडी कठोरता पर
उर में आज भी वही मासूमियत लिए हो तुम
क्या हुआ जो अब केशों में दिखने लगी हो सफेदी
पर आज भी स्वर्ण सी आभा लिए हो तुम
ज्ञान की गंगा बहा भविष्य को अंकुरित करने लगी हो
भावों में किसी के प्रेम बन जीने लगी हो तुम
दुआ है रब से यही की गुलाब सी खिलती रहो तुम
जो बसे हैं हृदय में उनके प्रेम से पोषित होती रहो तुम
आंखों में गर जो रिश्तों की घिर आई हो बदली
अधरों पे मुस्कान व अल्लहड़पन आज भी वही है पगली।
सर्वाधिकार©
द्वारिका चमोली (डीपी)
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