कुछ बदल रहा है
कुछ सोच रही
सिमट रही
बिखर रही
पहाड से
खामोश हैं
अपना समझ बैठी थी जिनको
उम्र ढल रही
बालों मैं चांदी चमक रही
उम्र बढ रही
नेह भी बढ रहा
उधार होता तो उतर जाता
बावला नेह बढता ही जा रहा
मन लगने की उम्र नहीं होती
पहाड मैं मौसम देखकर फूल नहीं खिलते
किसी से नेह पा जाना
बडा मान है
किसी पर नेह लुटाना
बडा सम्मान है
जीना भी तब आता
जब जीवन गुजर जाता
रास्ते भी तब दिखते
जब वापस लौट जाने का वक्त आता
पेड से पत्ता टूट कर जुड जाये
इस पतझड
ऐसी तन्हाई आई
जीवन से एक साल कम हो गया
ये पहाड है
यहां मौन मैं भी मीत प्रीत करते हैं
ये पहाड है
पूजा को पट नहीं खोलते
यहां पत्थरों मैं भी प्राण होते हैं।
दमयंती
0 टिप्पणियाँ