वफ़ादार चौकीदार -कल्लू

 

उत्तराखंड की लगूली

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वफ़ादार चौकीदार -कल्लू   उर्फ़ भंगी बनचूरी (तल्ली)

हरि लखेड़ा

 

सड़क पर आवारा असहाय फिरते कुत्तों पर मेरा लेख - प्रिय  श्वान प्रेमियों- से कुछ साल पहले अपने गाँव के वफ़ादार कल्लू की याद आ गई। प्रस्तुत है-

वफ़ादार चौकीदार -कल्लू   उर्फ़ भंगी बनचूरी (तल्ली)

कल्लू क्वी यन वन कु त्ता निन छे। हाँ या बात अलग च कि वैक जनम, लालन- पालन बनचूरी गाँव मा ह्वे जु अपण आप मा एक बरदान बोले सक्यांदू। अपण गाँव सब तै स्वर्ग लगद। या बात यन बि साबित करे सक्यांद कि कल्लू सारी गाँव मा एक ही छे जैकु सारी गाँव की रखवाली क ज़ि-म्मा अपर सर पर लियूं छे। नामो कु ण तीन भाइ और मा बाप भी छे  पर सब एकदम डरपोक।ऊँ दिन कुत्तों क एक गाँव से दुसर गाँव आण जाण लग्यूं रंद छे। जैन कैन जरा थोडा प्यार दिखै  वैक पैथर चलि जांद लालच मा। पर कल्लू न या परंपरा खतम कै दे। गाँव क चारों तरफ जन रेखा खींच दें जैक अंदर क्वी कुत्ता क्या जंगली जानवर तक नी ऐ सकुद छे।

�एक दिन कल्लू तै भी जीवन संगिनी मीलि गे। गाँव क एक भलुमानुष दुसर गाँव बटीक ले ऐ छे । कल्लू न भी क्वी ऐतराज नी कर। ए बीच वे क भाई बैण भी दुसर गाँव चलि गेन। कल्लू और कल्ली का परिवार बढ़ रहा था ।

अब देशी में -

ख़ैर अब तो कल्लू भी घरवाला हो गया था उसके  एक कल्ली जो मिल  गई थी। कल्लू का नाम किसने रखा और क्यों यह तो मालूम नही पर लगता है उसके बचपन मे किसी गाँव वाले ने अपने बचपन मे ग़ुस्से या प्यार से यह नाम रखा होगा। कल्लू का मतलब शायद कम अक़्ल से था जैसे हम किसी को ग़ुस्से से या प्यार से बुद्धू बोल देते हैं। जो कोई भी कल्लू या लो ले करके आवाज़ लगाता दौड़ा चला आता । जो भी मिलता खा लेता और पूँछ हिलाकर वापस अपनी जगह पर जम जाता या निफर किसी दूसरी�आवाज़ की इंतज़ार करता । कल्लू और कल्ली का रात का आराम स्थल पलख्वाल वालों की तिवारी निश्चित थी। �कल्लू की खिखंची हुयी सीमा रेखा गाँव की बीच की धुरी से लगभग आधा मील तक चारों और गोलाकार फैली थी। बांई ओर पल्ली सौलदणी, दांई ओर गुलेधार। सामने डगुंल्डा, पीछे आम का पेड़। भनक मिलते ही कल्लू के कान खड़े हो जाते और दौड़ पड़ता  घुसपैठियों को भगाने। सारे गाँव को पता चल जाता कि कुछ ख़तरा है।कल्ली भी कुछ दूर उसके साथ जाती पर बीच मे से ही वापस आ जाती। बाकी थोड़ा भौंक कर नमक हलाली करते और कहीं छुप जाते। अनजान व्यक्ति गाँव मे आता तो गाँव का कोई भी व्यक्ति के पुचकारने पर चुप हो जाते।

�काल्लू के कई बहादुरी के कारनामे गिनाए जाते। कई बार वह बाघ से लड़ा था और उसे सीमा से बाहर करके ही लौटा था। उसके रहते गाँव के किसी  बछड़े या मेमने को अनाथ नही होना पडा, न ही किसी  गाय या बकरी को अपना बच्चा खोना पडा। उससे पहले कई बार बाघ घात लगाकर सन्नी से बछड़े या बकरी उठा चुका था। गाँव मे सुअरों ने भी ग़दर  मचा रखी थी । कल्लू के होश संभालते ही सब बंद हो गया था। कई बार -ज़ख़्मी हुआ। राणा सांगा से अधिक घाव थे उसके शरीर पर।

�गाँव वाले उसका पुरा ख़्याल रखते। अच्छाखासा लंबा चौड़ा था। एकदम काले रगं का। चिकना चमकदार बदन। चौकन्नी आँखें, खड़े कान, फुर्तीली चाल। देखते देखते उसका परिरवार भी बढ़ा पर उसकी सारी वफ़ादारी गाँव के लिये थी। उम्र कब किस का  इंतज़ार करती है। कल्लू भी बूढ़ा हो चला था। कुछ भी हो पर गाँव की रक्षा का भार लिया था तो�निभाता रहा। और एक दिन रात के तीसरे प्रहर मे जब सब लोग गहरी नींद मे थे कल्लू भौंकता हुआ सौलदणी की तरफ़ गया ।आवाज़ सुनते ही कुछ लोग पीछे पीछे गये।

आवाज़ बंद हो गई थी । घायल अवस्था मे एक पेड़ के पास पडा है। बाघ तो भाग गया पर काल्लू को काफ़ी घाव लगे थे। गाँव वाले उठाकर घर लाये, बहुत उपचार किया पर बचा नही पाये।

फिर  कोई कल्लू पैदा ही नही हुआ।

सर्व सूचनार्थ-

1. कल्लू का प्रचलित नाम भंगी था जो तब भी उचित नही था और मौजूदा बदलते सामाजिक परिवेश मे तो बिलकुल भी नहीं लिया जाना चाहिए ।�2. बनचूरी केवल एक पर्यायवाची शब्द है उन सब गाँवों का जो उत्तराखंड राज्य मे हिमालय की तलहटी मे बसे हैं।

 

हरि लखेड़ा

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