उत्तराखंड की लगूली
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"समझ लेना कि होली है"
जो उत्तम मास फागुन का,
चला मधुमास भी आये,
समा रंगीन हो सारा,
समझ लेना कि होली है।
बिटप अमुवा पै बौराई,
जो कोकिल कुजती कुहू हो,
हो गुंजन बाग़ में अलि का,
समझ लेना कि होली है।
हो बासंती हवा दिग चार,
मारुत हो सुगन्धित भी,
हो गुँजित फाग का ही राग,
समझ लेना कि होली है।
गली जब घूमें नर नारी,
लिए रंगों की पिचकारी,
उड़े जब रंग हर सूं ही,
समझ लेना कि होली है।
हों चेहरे लाल और पीले,
गुलाबी हरित और नीले,
ख़ुशी के रंग जो झलकें,
समझ लेना कि होली है।
मिटाकर बैर जब मन का,
गिले शिकवे भुला दें सब,
मिलें गल एक दूजे से,
समझ लेना कि होली है।

नरेश चन्द्र उनियाल,
पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड।
सर्वथा मौलिक, स्वरचित एवं अप्रकाशित रचना।

नरेश चन्द्र उनियाल।
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