देख ही रहे हैं।
मुफलिसी में तो हम भी जी रहें हैं।
रोज़ रोज़ हर वक्त ज़हर पी रहे हैं।।
तमाशा बन बैठा हूं मैं पूरे शहर का।
फटेहाल पोशाकों को धो सी रहे हैं।।
दो वक्त की रोटी मयस्सर नहीं मुझे।
वो मुसलसल दिन रात घी पी रहे हैं।।
रफ़्ता रफ़्ता उतर रही पटरी जिंदगी।
है आने वाला वक्त बुरा देख ही रहे हैं।।
दरमियां फासले बहुत हैं पीढ़ियों के।
तल्खियां ज़ुबान में तो देख ही रहे हैं।।
कंगाल भी कर्जदार बने कंपनियों के।
झूल रहे फांसी के फंदे देख ही रहे हैं।।
क़यामत के दिन रात अमावस की है।
लील गया सावन ज़िंदगी देख ही रहे हैं।।
कसूर तेरा नहीं जमाने का है 'सुरेश'।
दौलत को क़त्ल बाप का देख ही रहे हैं।।
स्वरचित
सुरेश कुकरेती
मेरठ (उत्तर प्रदेश)
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