द्वि मुक्तक
(१)
अब नि दिखेंदा वो स्वागबंती मोर संगाड़ ।
उजड़्यूं सि दिखेणु च घुरपळ्यूं को सुहाग ।।
द्वार-द्वरिंडो फर संगुळौं की नथुलि-हंसुळि ।
अर हल्ल हलकणि छन ताळौं की बुलाक ।।
(२)
डांड्यूं का गौळाम कुएड़ि की हंसुळि होली ।
खुदेड़ गीतु का दगड़ बजणि बंसुळि होली ।।
बादळु का डोला मा बैठि बरखा बणि ऐजा ।
गळद्यवा कुळयूं दगड़ मंगळेर रंसुळि होली ।।
©® पयाश पोखड़ा
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