दर्पण

 

दर्पण


दर्पण तुम तो सत्य ही बोलते
इंसाफ का तराजू लिए तोलते
मुख मुस्कराहट पीठ में खंजर
दिल भेद उनके नहीं खोलते।।

तुम भी कुछ ऐसा कर दिखाओ
द्वेष छिपा है एक्स-रे सा दिखाओ
अन्तर्निर्हित हैं भाव शत्रु-मित्र के
स्वधर्म सत्यता का है बतलाओ।।

प्रवृत्ति विमुख वन्यजीव न होते
स्वभाव अनुकूल आचरण होते
काश मन मनुज भी दर्पण होता
जो दिखते बाहर वही अंदर होते।।

क्यों न हो आचरण दर्पण के जैसा
फिर बाहर गोरा अंदर काला कैसा
न विश्वासघात का कलंक लगेगा
जो अंदर जैसा हो बाहर भी वैसा।।

स्वरचित /मालिक
सुरेश कुकरेती
मेरठ (उत्तर प्रदेश)


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