“इतने सालों में मेरे लिए चार सोने की चूड़ियां नहीं बनवा पाए हैं.” केशवजी चुप हो जाते.
उन्हें देखकर करुणा कहती, “अरे, मैं तो ऐसे ही कह रही थी, जो काम ज़्यादा ज़रूरी है, उसे तो पहले करना पड़ेगा. चूड़ियां कहां भागे जा रही हैं, कभी भी बनवा लेंगे.”
केशवजी का मन आज बड़ा बेचैन था. बार-बार करवटें बदल रहे थे, पर नींद नहीं आ रही थी.
“क्या बात है जी.” पत्नी करुणा ने पूछा.
“कोई परेशानी है क्या?”
उन्होंने घड़ी की ओर देखा, रात के 2 बज रहे थे. वे धीरे से पलंग से उठे, कैलेंडर में देखा 12 मई.
“अभी पूरा एक महीना बाकी है”, वे बुदबुदाए. दरअसल, 12 मई को केशवजी की शादी की 50वीं सालगिरह है. बेटे-बहू, पोते-पोती सभी ने एलान कर दिया था कि ये सालगिरह बड़ी धूमधाम से मनाएंगे. सारे क़रीबी रिश्तेदारों को फोन द्वारा सूचित भी कर दिया गया था, पर केशवजी के मन में कुछ और ही चल रहा था.
“50 साल पहले किया वादा आज तक पूरा नहीं कर पाया, पर इस बार नहीं, अब तो वादा पूरा करना ही है, चाहे जो हो जाए.” केशवजी ख़ुद से ही बातें कर रहे थे. फिर उन्होंने सुराही से पानी निकालकर पीया. करुणा की ओर देखा, तो वो आज भी नींद में मुस्कुरा रही थी, शायद कोई अच्छा सपना देख रही थी. उन्होंने बड़े प्यार से उसे चादर ओढ़ा दी और फिर वापस आकर सो गए. सवेरे 10 बजे केशवजी तैयार होकर बाहर जाने लगे, “अरे, आप सुबह-सुबह कहां चल दिए?” पत्नी करुणा ने पूछा.
“हज़ार बार कहा है कहीं जाते समय टोका मत करो, पर तुम्हारी तो आदत ही ख़राब है.”
केशवजी ने झल्लाते हुए करुणा को डांट पिला दी और बाहर निकल गए.
“लो, पूछो तो नाराज़, ना पूछो तो कहेंगे तुम्हें क्या, मैं कहीं भी जाऊं.” करुणा बड़बड़ाते हुए रसोईघर में चली गई.
सास-ससुर की इस नोकझोंक की अब तो बहू भी आदी हो गई थी, वो काम करते-करते मुस्कुरा दी.
घर से निकलकर केशवजी सीधे अपने पुराने मित्र राम प्रताप सुनार की दुकान पर पहुंच गए.
“अरे भैया, आओ-आओ, आज इधर का रास्ता कैसे भूल गए?” राम प्रताप ने केशवजी को बैठाते हुए पूछा. राम प्रताप उनका पारिवारिक मित्र और सुनार था. बेटे की शादी से लेकर कहीं लेन-देन के सभी प्रकार के सोने-चांदी के गहने वे उसी से बनवाते थे.
केशवजी ने बैठकर पानी पीया. फिर अपनी जेब से एक लाल रंग की कांच की चूड़ी निकालकर टेबल पर रख दी.
“रामा, ये तेरी भाभी की चूड़ी है, इसी नाप की सोने की चार चूड़ियां बनवाना चाहता हूं. कितनी क़ीमत होगी?” रामा ने पहले चूड़ी को देखा, फिर अपने दोस्त केशव को, फिर हो-हो करके ज़ोर से हंसने लगा.
“क्या बात है केशव, बुढ़ापे में बड़ा प्यार आ रहा है भाभीजी पर!”
“नहीं यार, वो बात नहीं है. दरअसल, तू तो जानता है इस बार शादी की 50वीं सालगिरह है. बच्चे मान ही नहीं रहे. कह रहे हैं थोड़ा धूमधाम से मनाएंगे, बस इसीलिए.” थोड़ा शर्माते हुए केशवजी बोले.
अपने मन की बात वे छिपा गए जब उनकी शादी हुई थी और उन्होंने करुणा को पहली बार देखा था, गौरवर्णी करुणा लाल साड़ी में बेहद सुंदर लग रही थी. गोरे-गोरे हाथों में लाल कांच की चूड़ियां पहने थी, “करुणा, अगली शादी की सालगिरह पर मैं तुम्हें सोने की चूड़ियां बनवा दूंगा.” उन्होंने करुणाा से वादा किया था, लेकिन ज़िंदगी की भागम दौड़ में माता-पिता, बच्चे, पढ़ाई, बीमारी एक के बाद एक ज़िम्मेदारी निभाते हुए कभी करुणा के लिए चूड़ियां बनवाने का मौक़ा ही नहीं आया. कभी-कभी करुणा उन्हें ताना भी मार देती.
“इतने सालों में मेरे लिए चार सोने की चूड़ियां नहीं बनवा पाए हैं.” केशवजी चुप हो जाते.
उन्हें देखकर करुणा कहती, “अरे, मैं तो ऐसे ही कह रही थी, जो काम ज़्यादा ज़रूरी है, उसे तो पहले करना पड़ेगा. चूड़ियां कहां भागे जा रही हैं, कभी भी बनवा लेंगे.”
घर-गृहस्थी की सारी ज़िम्मेदारी पोस्टमास्टर की एक छोटी-सी नौकरी में उन्होंने पूरी की. करुणा ने हर क़दम पर उनका साथ दिया. बस, जब वो ये चूड़ियों वाला ताना मारती, केशवजी अपने आप को उसका अपराधी मानने लगते.
इसी तरह शादी की कई सालगिरह निकल गई. कभी वे मनाते, कभी सिर्फ़ मंदिर जाकर प्रसाद चढ़ाकर ही संतोष कर लेते. वक़्त अपनी रफ़्तार से चलता रहा. माता-पिता दुनिया से विदा हो गए. बच्चे बड़े हो गए. पहले उनकी पढ़ाई, फिर शादी-ब्याह, जमा-पूंजी कहां ख़र्च हो जाती, पता ही नहीं चलता. रिटायर होते-होते उन्होंने कुछ लोन लेकर, कुछ पी.एफ. के पैसों को मिलाकर दो कमरों का एक छोटा-सा मकान भी बनवा लिया. बेटे की नौकरी भी इसी शहर में लग गई थी. कुछ उसने भी हिम्मत की, तो मकान को डबल स्टोर बना लिया. अब वे परिवार सहित ऊपर की मंज़िल पर रहते थे. नीचे का हिस्सा किराए पर चढ़ा दिया गया. एक मध्यमवर्गीय परिवार की तरह उनका भी गुज़र-बसर आराम से हो रहा था.
राम प्रताप केशवजी से बोला, “भैया, तुम तो जानते हो, आजकल सोने का भाव ज़रा तेज़ है, फिर भी तुमसे ज़्यादा थोड़े ही लूंगा, यही कोई 80-90 हज़ार रुपए में बन जाएंगी चार चूड़ियां.”
“हूं” केशवजी ने सिर हिलाया. इतने ख़र्च का अंदाज़ा था उन्हें.
“ठीक है, मैं कल 25 प्रतिशत राशि दे जाऊंगा. तुम 15-20 दिनों में तैयार कर देना. अच्छा राम-राम चलता हूं.” कहकर केशवजी सीधे पोस्ट ऑफिस पहुंचे, जहां उन्होंने वर्षों पहले एक बचत खाता खोला था, जिसकी जानकारी करुणा को भी नहीं थी. प्रतिमाह वह उसमें बचत करके रुपए जमा कर देते थे. अब वो रकम एक लाख रुपए हो गई थी. उन्होंने 25 हज़ार रुपए निकलवाए और राम प्रताप को देकर सीधे घर आ गए. देखते ही देखते 50वीं सालगिरह का दिन भी आ गया. घर सभी क़रीबी रिश्तेदारों से भर गया. करुणा तो नई नवेली दुल्हन की तरह शरमा रही थी.
“अरे, मैंने तो मना किया था जीजी, पर ये बेटा-बहू माने ही नहीं.” वह हंसकर अपनी ननद को बता रही थी. शाम को सब तैयार हो गए. सफ़ेद कुर्ते-पायजामे में केशवजी भी सज गए. सारे मेहमानों के साथ उनका मित्र राम प्रताप सुनार भी आया था. पोते-पोती ने माला उनके हाथ में देकर कहा, “दादू, दादी को माला पहनाइए.” उन्होंने हंसते हुए करुणा को माला पहना दी. करुणा और भी शरमा गईं.
“अब आपकी बारी दादी.” बच्चों ने दादी से भी माला पहनवा दी. चारों ओर तालियां बजने लगीं, तभी केशवजी ने राम प्रताप से एक डिब्बा लिया. उसे खोला फिर करुणा से बोले, “लो भई, ज़रा हाथ तो बढ़ाना.” करुणा आश्चर्य से उन्हें देखने लगी. डिब्बे में से चार चूड़ियां निकालकर उन्होंने करुणा के गोरे-गोरे हाथों में पहना दीं.
“अब मत कहना सोने की चूड़ियां नहीं पहनाईं.”
“वाउ! दादू सो रोमांटिक.” पोता-पोती ख़ुशी के मारे सीटियां बजाने लगे. तालियों की गड़गड़ाहट और तेज़ हो गई, “लेकिन ये..?” करुणा ने पूछना चाहा. उसने बेटे-बहू की ओर देखा.
“नहीं मां, हमारा कोई योगदान नहीं है.” केशवजी ने करुणा का हाथ थामा और बड़े प्यार से बोले, “वादा जो किया था, देर से ही सही, निभा तो दिया.” करुणा की आंखों से ख़ुशी के आंसू टपक रहे थे और केशवजी बच्चों के साथ मिलकर केक खा रहे थे.- मीनू
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