चोरगधन के ओ अच्छे दिन****Hindi i article written by Hari Lakheda,

 


चोरगधन के ओ अच्छे दिन
कहते हैं इतिहास अपने आप को दोहराता है। चोरगधन के साथ भी यही हो रहा है।
यह कहानी मैने अपने दादा से सुनी। उन्होंने अपने दादा से और उनके दादा ने अपने दादा से। पीढी दर पीढी कहानी सुनाई गई, कुछ बदलाव हुये, जिन्हें जोड़ लिया गया या छोड़ दिया गया। हमारी प्रजाति में लंबे समय तक माँ बाप साथ नही रहते। माँ ही बच्चों को पालती है ओ भी बस साल दो साल। चलने फिरने लायक बनाया, पेट पालने के लिये शिकार करना सिखाया और ओ अपने रास्ते बच्चे अपने रास्ते। दादा भी कहाँ साथ रहते हैं पर मेरे दादा बीमार रहते थे।जंगल के किनारे गधन से लगी एक ख़ोह मे डरे डरे छुपे छुपे रहते थे। पानी पीकर वहाँ से गुज़र रहा था, हुंकार लगाकर बुलाया। चला गया। उनसे पता चला कि मैं उनका पोता हूँ। साफ था कि मदद चाहिये थी वरना कौन पूछता है। मैं भी कहाँ कहाँ भटकता। सोचा जो भी मिलेगा मिल बाँट के गुज़ारा कर लेंगे। दिनभर जो भी धर पकड़ लेता शाम को खाते, बच जाता तो अगले दिन। हम लोगों मे जोड़कर रखने की न प्रथा है न सुविधा। रात को दादा कहानी सुनाते, मैं सुनते सुनते सो जाता। दादा का पता नही कब सोते होंगे। चोरगदन की कहानी उन्हीं की ज़ुबान जो उनको उनके दादा पडदादा से मिली।
"यह जंगल पहले बहुत घना जंगल था। हमारे पूर्वज कब और कहाँ से आये पता नही पर जब से आँख खोली अपने को यहीं का माना और यहीं के हो के रह गये। काफ़ी बडा परिवार था। तब यहाँ आज की तरह अकेलापन नही था। दोंनो पहाड़ियों के बीच एक बरसाती दरिया था जो नीचे नदी मे मिलता था। सब कुछ बदल गया पर दरिया और नदी अब भी हैं। यह दरिया आज भी ऊपर डांडा की ओर से बह रहा है, बिलकुल पहले की तरह। ऊपर तो बरसात के बाद पानी खतम हो जाता है पर नीचे गधन मे हर समय पानी रहता है। हाँ तो मै कह रहा था कि पहले यह घना जंगल था। दादाजी बताते थे कि तब इसका कोई नाम नही था।
जंगल जानवरों से भरा था। हमारी ख़ुशक़िस्मती कि शेर,हाथी नही थे वरना हमारी कहाँ चलती। बाघ होने से हम बाकी सब से तेज़, चालाक और ताक़तवर थे। भालू से ही कुछ ख़तरा हो सकता था पर हमसे क्या टक्कर लेता। सियार, लोमड़ी से तो बस चापलूसी करवा लो। गीदड़ तो गीदड़ ठहरा। उनसे ही ख़बर मिलती कि काकड हिरन किस तरफ हैं। जाते और एक दो पकड लाते। बची ख़ुशी हड्डी माँस सियार लोमड़ी गीदड़ को मेहनताना मे मिल जाता। बचा खुचा चील क़व्वे साफ कर जाते। सुअर भी थे पर नीचे गधन के आस पास ही घूमते रहते। बंदर लंगूर अपने मे ही मस्त रहते थे। बहुत अच्छे दिन थे। गाँव के लोग गाँव मे ख़ुश हम जंगल मे ख़ुश। हम बाघों का बहुत बडा परिवार था । बाघों के परिवार का सबसे बुज़ुर्ग बाघ जंगल का बेताज बादशाह। किसी की मजाल कि किसी बाघ के बच्चे तक पर नजर कर सके। हमारा साम्राज्य ।
फिर कुछ बदलने सा लगा। न जाने कहाँ से कुछ लोग घरेलू जानवरों के साथ दाहिनी पहाडी पर आकर रहने लगे। बहुत पुरानी बात है। शायद तब मेरे पडदादा के पडदादा के पडदादा के पडदादा ने देखा होगा। जगह का नाम रिखेडा रखा। अंधाधुँध पेड़ काटे, ख़ाली पहाड खोदकर खेत बनाये। समय कहाँ रुकता है। वहाँ वे लोग आगे बढ़ रहे थे , यहाँ हम पीछे खिसकते जा रहे थे। बाईं पहाडी पर भी लोग बसने लगे, नाम रखा सार। रिखेडा से कुछ परिवार डांडा के नीचे बस गये, नाम रखा बनचूरी। सिलसिला रुका नही। गाँव के लोग जंगल तक आने लगे। जंगल काटकर खेत बना लिये। हम और अंदर चले आये। फिर वे और भी अंदर आने लगे। कई पेड़ काटकर ले गये। कभी कभी तो काकड हिरन खाबलि मे फँसाकर ले जाते।
टकराव तो होना ही था। कब तक चुप रहते। अपने बचाव मे या अपना राज्य बचाने के लिये लड़ना पडा। यह काम हम ही कर सकते थे। लगभग रोज़ ही कोई न कोई किसी न किसी आदमी या औरत को मारकर ले आता। पहले तो पड़े रहने देते पर सोचा चखने मे क्या हर्ज है। चखा तो एकदम अलग ओर मज़ेदार भी।
लडाई छिड़ चुकी थी। जब तक वे दाथी कुल्हाड़ी से लड़े , हम जीते। डरते थे हमसे। फिर कहीं से बंदूक़ ले आये। दूर से गोली छूटती और खोपड़ी पार कर जाती। जिसे लगती उठ नही पाता। इसका तोड़ हम बाघों के पास तो था नही। हार मानकर या तो जंगल छोड़कर चले गये या कहीं दुबक कर छिपे रहे। भालुओं और सुवरों ने भी वही किया। बस रात के अंधेरे मे कोई गाय बकरी उठाकर ले आते। काकड हिरन भी जंगल छोड़कर चले गये थे। खाने के लाले पड़ गये। अबतक जो मिलता उसी को मारकर खा जाते चाहे आदमी हो या बंदर।"
एकदिन शिकार से जल्दी लौट आया । कुछ मिला ही नही। देखा दादाजी के चारों तरफ चील क़व्वे बैठकर उनको नोच रहे हैं। दम तोड़ गये थे। हम बाघों की उमर यही कोई बीस पच्चीस। क्या करता। आगे बढ़ गया।लोमड़ी गीदड़ मिलकर ठिकाने लगा ही देंगे। “
अब मै बूढ़ा हो गया हूँ। बहुत कुछ देखा है। खुद का परिवार नही है। पर एक बात अच्छी हो रही है। पिछले कुछ सालों से लोग गाँव छोड़कर जाने लगे हैं। खेती बाड़ी, गोट गुठ्यार बंद है। घरों पर ताले लटक रहे हैं। अब कोई जंगल नही आता। सारे खेत बंजर हैं। ऊँची ऊँची घास खड़ी हो गई है। जंगल मे नये पेड़ खड़े हो रहे हैं। काकड हिरन लौट रहे हैं। बंदर तो बहुत हो गये हैं। एक बाघ परिवार भी आ गया है। अब हम लोगों से नही डरते। वे हमसे डरने लगे हैं। अब हमें गोली का भी डर नही रहा। जंगल तक आने के रास्ते ही नही रहे। गाँव मे लोग रहे ही नही। बूढ़े और कुछ गिने चुने परिवार। बंदर तो गाँव मे ही बस जांय शायद।
लगता है अच्छे दिन वापस आयेंगे। हमारा साम्राज्य होगा। मै तो नही रहूँगा पर बाघ साम्राज्य फिर से जरूर खडा होगा ।
स्वरचित सादर
हरि लखेड़ा

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