सफ़र के साथी****Hindi i article written by Hari Lakheda,

 


सफ़र के साथी

बात बहुत पुरानी है पर आज भी याद आती है तो हँसे बिना नही रह पाता। बनचूरी से कोटद्वार आ रहे थे। तब दुगड्डा तक २०-२५ मील का बाट पैदल ही तय करना पड़ता था । आज भी याद है घाटी से निकल कर डांडी डांड -उकाल -उंधार-सैनार -ऊबड़ खाबड़ रास्ता -जयगांव -पौखाल-सौड नदी-पुराणक्वाट ह्वेक दुगड्डा।
सात साल का रहा हुंगा । गाँव के गौंखड्या स्कूल १ साल में ठीक से अक्षर ज्ञान तक नहीं कर पाया। पिताजी ने अपने साथ कोटद्वार ले जाना तय किया।
माताजी और गाँव के एक दादा -बडे भाई के दगड सुबह सुबह अंधेरे में चल पड़े। कहीं कहीं दादा ने कंधे पर उठाया भी। सूरज डूबने को था पर दुगड्डे का पता नहीं। पाँव थक कर चूर। दादा बोलते जाते बस कुछ दूर और। एक मोड़ पर दूर इशारा करके बोले ओ रहा। दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है। बग़ावत की लहर दौड़ गई ।मैं बोला -झूठ बोल रहे हो, मुझे नहीं जाना और पीछे भागने लगा। मजबूरन कंधे पर बिठाया और हौले हौले आ गये दुगड्डा। बस से कोटद्वार पहंचे। पाँव सूज गये थे । चला नही जा रहा था।
यह बात पिताजी को बताई तो सब हंस दिये।
आज भी सोचता हूँ कि मंज़िल सामने हो और हिम्मत जबाब देती दिखे और तब ही कोई सहारा देने वाला मिल जाय तो उसका अहसान कभी नही उतार सकते चाहे हम कुछ भी बन जांय, कुछ भी कर लें।

स्वरचित सादर
हरि लखेड़ा
पढ़ने के लिये धन्यवाद

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